सत्ययुग का रहस्यमयी मंदिर

प्राचीन जंगलों के हृदय में, समय की पकड़ से परे, एक मंदिर छिपा हुआ था। इसकी कहानियाँ इतनी पुरानी थीं कि सबसे पुराने शास्त्रों में भी केवल संकेत मात्र मिलते थे। कहा जाता था कि यह मंदिर सत्ययुग में बना था—वह युग जब देवता स्वयं पृथ्वी पर विचरण करते थे। लेकिन यह कोई साधारण मंदिर नहीं था। कुछ इसे दिव्यता का द्वार मानते थे, तो कुछ इसे किसी प्राचीन और भयंकर शक्ति का बंदीगृह।

श्रापित साधक की कथा

बहुत समय पहले, सत्ययुग में ऋषि कल्याण नामक एक महान तपस्वी हुआ करते थे, जो भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे। एक दिन, गंगा तट पर ध्यान करते हुए, उन्हें एक दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई। उन्होंने देखा कि एक सुनहरी आभा से जगमगाता एक मंदिर, घने जंगलों के भीतर छिपा हुआ है। एक रहस्यमयी आवाज़ गूँजी—
“मंदिर की खोज करो, परंतु सावधान—बिना बुलावे के कोई भी इसे पार नहीं कर सकता।”

अटूट श्रद्धा के साथ, ऋषि कल्याण ने मंदिर की खोज प्रारंभ की। जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते गए, जंगल मानो उनकी परीक्षा लेने लगा। वृक्ष फुसफुसाते थे, नदियाँ अपना मार्ग बदल देतीं, और अंधेरे में छायाएँ उनका पीछा करतीं। लेकिन उनकी भक्ति अडिग रही।

अंततः, कई सप्ताहों की यात्रा के बाद, उन्होंने वह अद्भुत मंदिर पाया। वह समय से परे प्रतीत होता था—दीवारों पर देवताओं की मूर्तियाँ उकेरी हुई थीं, और उनमें से हल्की सुनहरी चमक फूट रही थी। मध्य में एक विशाल द्वार था, जिस पर कुछ रहस्यमयी प्रतीक उकेरे हुए थे, जो किसी अलौकिक शक्ति से स्पंदित हो रहे थे।

जैसे ही ऋषि ने द्वार के निकट कदम बढ़ाया, एक गूंजती हुई आवाज़ आई—“वापस चले जाओ, ऋषि। यह स्थान मनुष्यों के लिए नहीं है।” लेकिन उनकी भक्ति ने उन्हें पीछे हटने नहीं दिया। वे अपने मंत्रों का उच्चारण करते हुए आगे बढ़े और अपने हाथ से द्वार पर अंकित प्रतीक को स्पर्श कर दिया।

जैसे ही उन्होंने स्पर्श किया, आकाश काला पड़ गया, धरती काँप उठी, और एक अदृश्य शक्ति ने उन्हें पीछे धकेल दिया। बेहोश होने से पहले, उन्होंने देखा कि मंदिर से एक चमकता हुआ दिव्य प्राणी प्रकट हुआ—ना वह देवता था, ना असुर, बल्कि कुछ ऐसा जो समय की सीमा से परे था।

अनंत प्रहरी का रहस्य

जब ऋषि कल्याण को होश आया, तो वे अकेले नहीं थे। उनके सामने एक रहस्यमयी प्रकाशमान स्वरूप खड़ा था। “तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था,” उसने कहा।

काँपते हुए ऋषि ने पूछा, “आप कौन हैं, देव?”

वह दिव्य प्राणी मंदिर की ओर देखते हुए बोला—
“मैं इस स्थान का रक्षक हूँ। यह मंदिर कोई साधारण मंदिर नहीं, बल्कि एक कैदखाना है। सत्ययुग में देवताओं को भी कुछ ऐसे निर्णय लेने पड़े, जो मानव समझ से परे हैं। यहाँ कुछ बंद है—कुछ ऐसा, जिसकी शक्ति को समय भी मिटा नहीं सका। तुम्हारी भक्ति ने तुम्हें क्षमा दिला दी है, लेकिन अब तुम तुरंत चले जाओ और फिर कभी लौटने का प्रयास मत करना।”

ऋषि कल्याण ने श्रद्धापूर्वक नमन किया और वहाँ से लौट आए। उन्होंने इस मंदिर के विषय में फिर कभी किसी से कुछ नहीं कहा। किंवदंतियाँ कहती हैं कि कुछ विशेष रात्रियों में, जंगल आज भी उनका नाम फुसफुसाता है, और चंद्रमा की रोशनी में वह मंदिर हल्के-हल्के जगमगाता है, मानो किसी नये साधक के आने की प्रतीक्षा कर रहा हो…

रहस्य अब भी जीवित है

आज भी, प्राचीन ग्रंथों और आधी-अधूरी कहानियों में अनंत प्रहरी और उस शक्ति का उल्लेख मिलता है, जो सत्ययुग के इस मंदिर में कैद है। वह आशीर्वाद है या अभिशाप? वह कोई रक्षक है या कोई ऐसा रहस्य जिसे कभी खोला नहीं जाना चाहिए?

उत्तर अब भी अज्ञात हैं… लेकिन एक दिन कोई न कोई उस मंदिर की खोज फिर से करेगा… शायद तुम?

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