Bhagavad Gita Chapter 4 – The Path of Knowledge and Renunciation in Hindi

भगवद गीता का चौथा अध्याय “ज्ञान कर्म संन्यास योग” के नाम से जाना जाता है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण कर्म, ज्ञान और संन्यास के गूढ़ रहस्यों को उजागर करते हैं। इस अध्याय में वे बताते हैं कि यह दिव्य ज्ञान उन्होंने पहले सूर्यदेव (विवस्वान) को दिया था, जो बाद में राजर्षियों तक पहुँचा, लेकिन समय के साथ यह लुप्त हो गया। अब वे इसे अर्जुन को पुनः प्रदान कर रहे हैं क्योंकि अर्जुन उनके प्रिय भक्त और मित्र हैं।


1. सनातन योग और उसका स्थानांतरण (श्लोक 1–10)

श्रीकृष्ण बताते हैं कि यह योग ज्ञान आदिकाल से चला आ रहा है। वे कहते हैं:

“मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य को दिया, सूर्य ने मनु को बताया और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को दिया।” (4.1)

लेकिन समय के साथ यह ज्ञान लुप्त हो गया, और अब वे इसे अर्जुन को समझा रहे हैं ताकि धर्म की पुनर्स्थापना हो सके। इस श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि सनातन धर्म चिरकाल से चला आ रहा है और इसे समय-समय पर पुनर्जीवित करने की आवश्यकता होती है।


2. भगवान के अवतार का रहस्य (श्लोक 7–8)

गीता के इस अध्याय के सबसे प्रसिद्ध श्लोकों में से एक:

“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥”
(4.7)

“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥”
(4.8)

इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि जब-जब अधर्म बढ़ता है और धर्म की हानि होती है, तब वे स्वयं अवतार लेते हैं। वे साधुजनों की रक्षा के लिए, पापियों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए हर युग में प्रकट होते हैं।

यह सिद्धांत हमें यह विश्वास दिलाता है कि जब भी संसार में अन्याय बढ़ेगा, तब भगवान स्वयं हस्तक्षेप करेंगे।


3. कर्म, ज्ञान और भक्ति का समन्वय (श्लोक 11–24)

श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो जिस प्रकार उन्हें भजता है, वे उसे उसी रूप में फल प्रदान करते हैं। वे कहते हैं कि सभी मार्ग अंततः उनकी ओर ही जाते हैं।

इसके साथ ही वे बताते हैं कि जो व्यक्ति कर्म को बिना किसी आसक्ति के करता है, वह कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है। यही कर्मयोग का सार है – फल की इच्छा छोड़कर कर्तव्य करना


4. ज्ञान की शक्ति और इसकी महिमा (श्लोक 25–42)

भगवान श्रीकृष्ण ज्ञान को सभी पापों को जलाने वाला बताते हैं। वे कहते हैं:

“न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥”
(4.38)

अर्थात, इस संसार में ज्ञान से बढ़कर कुछ भी पवित्र नहीं है। जब व्यक्ति योग के माध्यम से सिद्ध हो जाता है, तब वह स्वयं इस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है।

इसलिए वे अर्जुन को आदेश देते हैं कि वे ज्ञानी संतों के पास जाकर श्रद्धा और विनम्रता से ज्ञान प्राप्त करें।


इस अध्याय के प्रमुख संदेश

  1. योग शाश्वत है – यह ज्ञान आदि काल से चला आ रहा है और समय-समय पर पुनर्जीवित होता है।
  2. भगवान का अवतार धर्म की रक्षा के लिए होता है – जब अधर्म बढ़ता है, तब भगवान स्वयं अवतार लेकर संसार में धर्म की स्थापना करते हैं।
  3. निष्काम कर्म – बिना फल की इच्छा के किया गया कर्म बंधन से मुक्त करता है।
  4. ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है – सही ज्ञान अज्ञान को नष्ट करता है और व्यक्ति को आत्मज्ञान की ओर ले जाता है।
  5. गुरु का महत्व – आध्यात्मिक ज्ञान के लिए सद्गुरु की शरण में जाना आवश्यक है।

निष्कर्ष

भगवद गीता का यह अध्याय ज्ञान, कर्म और भक्ति के अद्भुत समन्वय को प्रस्तुत करता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाते हैं कि ज्ञान और निष्काम कर्म को अपनाकर कोई भी व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

इस अध्याय का संदेश हमें यह सिखाता है कि हम अपने जीवन में कर्तव्य का पालन करें, कर्म के प्रति आसक्ति छोड़ें और सच्चे ज्ञान के मार्ग पर चलकर आत्म-साक्षात्कार की ओर बढ़ें। यही जीवन की सच्ची साधना है।

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